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पंचायत सीज़न 4: सादगी का असर अब थोड़ा कम लगने लगा है…
TVF की लोकप्रिय वेब सीरीज़ ‘पंचायत’ का चौथा सीज़न आखिरकार रिलीज़ हो गया है और फैंस एक बार फिर फुलेरा गांव में लौट आए हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या सीज़न 4 पहले की तरह दिल जीतता है या अब शो दोहराव का शिकार हो गया है?
इस बार की कहानी वहीं से शुरू होती है जहां सीज़न 3 ने खत्म किया था – चंदन कुमार की लिखी इस स्क्रिप्ट में अब राजनीतिक तनाव और भावनात्मक घनत्व थोड़ा बढ़ गया है, लेकिन वो पुरानी मासूमियत, जो पहले तीन सीज़न में सबसे बड़ा प्लस पॉइंट थी, अब थोड़ी कम हो गई है।
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कहानी में क्या नया है?
सीज़न 4 में अभिषेक त्रिपाठी (जितेंद्र कुमार) एक बार फिर फुलेरा की पंचायत में वापसी करता है। पिछली बार उसका ट्रांसफर लगभग हो चुका था, लेकिन अब वो फिर उसी कुर्सी पर है। इस बार वो पहले से ज़्यादा समझदार, ज़िम्मेदार और गांव के मामलों में इन्वॉल्व दिखाई देता है।
लेकिन असली तनाव आता है गांव की राजनीति से। विधायक जी और उनके गुर्गे इस बार ज़्यादा गुस्से में हैं, क्योंकि सचिव और प्रधान एक बार फिर उनके खिलाफ खड़े हो जाते हैं। वहीं, प्रधान जी (नीना गुप्ता) और उनके पति प्रधानपति (रघुवीर यादव) का मज़ाकिया रिश्ता पहले से ज़्यादा गंभीर होता जा रहा है।
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क्या शो अब भी पहले जैसा है?
हां और नहीं।
हां, क्योंकि सीज़न 4 में भी वही देसी खुशबू है – फुलेरा का जीवन, बिजली की समस्या, शादी-ब्याह के ड्रामे, सरकारी योजनाएं, और गांव की धीमी पर दिलचस्प रफ्तार।
नहीं, क्योंकि अब सीज़न थोड़े "रिपीट मोड" पर चल रहा है। वही पंचों के मज़ेदार झगड़े, वही विधायक जी की धमकियाँ, वही अभिषेक की खीज और वही रिंकी को लेकर हिचकिचाहट।
कुछ चीज़ें अब predictable लगने लगी हैं। जहां पहले हर एपिसोड में एक अलग ही ताजगी होती थी, अब वो शार्पनेस थोड़ी कमजोर लगती है।
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अभिनय और किरदार
जितेंद्र कुमार अब अपने किरदार में एकदम घुल-मिल गए हैं। अभिषेक का गुस्सा, उसकी झुंझलाहट, और उसकी समझदारी – सब कुछ एकदम नेचुरल लगता है।
रघुवीर यादव एक बार फिर शो के सबसे दमदार किरदार साबित होते हैं। उनकी टाइमिंग, एक्सप्रेशन और संवाद – हमेशा की तरह लाजवाब।
नीना गुप्ता को इस बार थोड़ा और स्क्रीन टाइम मिला है, और उन्होंने हर पल को सार्थक किया है।
चंदन रॉय (विकास) और फैसल मालिक (प्रह्लाद) अब भी शो के कॉमिक बैलेंस को बनाए रखते हैं, लेकिन उनका रोल पहले से कमज़ोर हुआ है।
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भावनात्मक गहराई या ओवरड्रामा?
सीज़न 4 में कुछ जगहों पर भावनात्मक सीन अच्छे हैं – जैसे अभिषेक का अपने करियर को लेकर डर, या प्रह्लाद का अकेलापन। लेकिन कई जगह ये इमोशन्स जबरदस्ती ठूंसे हुए लगते हैं, जैसे अब लेखकों को ज़बरदस्ती ‘भावनात्मकता’ डालनी है ताकि दर्शक जुड़े रहें।
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क्या यह सीज़न ज़रूरी था?
यही सबसे बड़ा सवाल है।
सीज़न 1 और 2 नएपन से भरे हुए थे, और सीज़न 3 ने राजनीति के जरिए सीरीज़ को नया डायरेक्शन दिया। लेकिन सीज़न 4 अब उसी लूप में फंसा लग रहा है – राजनीति, तबादला, गुस्सा, पंचायत मीटिंग्स, और थोड़ी सी रिंकी वाली लव स्टोरी।
ऐसा लग रहा है कि अब यह शो अपनी असली एंडिंग से दूर भाग रहा है, जबकि उसे यहीं रुक जाना चाहिए था।
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सीज़न 4 के प्लस पॉइंट्स:
अभिनय हमेशा की तरह शानदार
सिनेमेटोग्राफी और बैकग्राउंड स्कोर एकदम सुरीला
कुछ कॉमिक मोमेंट्स वाकई मज़ेदार हैं
ग्रामीण भारत का यथार्थ अब भी जिंदा है
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सीज़न 4 के निगेटिव पॉइंट्स:
कहानी में दोहराव
भावनात्मकता थोड़ी बनावटी लगती है
विधायक जी का ट्रैक अब उबाऊ लगने लगा है
कुछ एपिसोड्स खिंचे हुए लगते हैं
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फाइनल वर्डिक्ट:
पंचायत सीज़न 4 अब भी एक अच्छी सीरीज़ है, लेकिन यह ‘शानदार’ से अब ‘ठीक-ठाक’ की तरफ खिसक गई है। यदि आपने पहले तीन सीज़न पसंद किए हैं, तो ये देखना आपकी आदत का हिस्सा बन चुका है। लेकिन नए दर्शकों के लिए यह सीज़न बहुत कुछ नया नहीं देगा।
रेटिंग: 3.5/5
अगर सीज़न 5 बनता है, तो लेखकों को अब कुछ बड़ा, नया और अनप्रिडिक्टेबल लाना होगा… वरना पंचायत की चम
क फीकी पड़ने लगेगी।
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अगर आप चाहें तो मैं इसका शॉर्ट वर्शन या सोशल मीडिया पोस्ट भी बना सकता हूँ।
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