भारत के ओडिशा राज्य में स्थित पुरी नगरी को धर्म और आस्था का केंद्र माना जाता है। यह वही स्थान है जहाँ जगत के पालनहार, श्रीकृष्ण अपने विशेष रूप में विराजमान हैं – जिन्हें हम जगन्नाथ कहते हैं। "जगन्नाथ" शब्द का अर्थ है "संपूर्ण ब्रह्मांड के स्वामी"। पुरी का जगन्नाथ मंदिर न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में आस्था और भक्ति का एक अद्भुत प्रतीक है। इस कथा के पीछे कई रहस्य, चमत्कार और दिव्य घटनाएं जुड़ी हैं, जो भक्तों के मन में श्रद्धा को और अधिक गहरा करती हैं।
श्रीकृष्ण से जगन्नाथ बनने की कथा
जगन्नाथ की कथा की शुरुआत होती है द्वारका से, जहाँ श्रीकृष्ण का राज चलता था। महाभारत के युद्ध के बाद, श्रीकृष्ण ने जब अपना अवतार-कार्य पूर्ण किया तो एक दिन एक शिकारी के हाथों उन्हें तीर लग गया और उनका शरीर पृथ्वी पर छूट गया। कहते हैं कि श्रीकृष्ण का शरीर तो पंचतत्व में विलीन हो गया, लेकिन उनका हृदय अमर रहा – वह कभी नष्ट नहीं हुआ।
भगवान का वह दिव्य हृदय समय के साथ लुप्त हो गया और समुद्र में समा गया। कालांतर में यह हृदय एक नीलमणि के रूप में फिर प्रकट हुआ, जिसे ब्रह्मपदार्थ या नीलमाधव के नाम से भी जाना जाता है।
राजा इंद्रद्युम्न की भक्ति
ओडिशा के मालवा राज्य में एक बार राजा इंद्रद्युम्न ने सुना कि नीलांचल (आज का पुरी) में एक दिव्य देवता प्रकट हुए हैं जिन्हें नीलमाधव कहा जाता है। राजा ने उन्हें देखने की ठानी, लेकिन जब वे पहुंचे तो नीलमाधव अंतर्धान हो चुके थे। राजा ने उसी स्थान पर एक भव्य मंदिर बनाने का निर्णय लिया, जिसमें वे भगवान को फिर से प्रकट करना चाहते थे।
कहा जाता है कि एक दिन भगवान स्वयं राजा के सपने में आए और कहा कि समुद्र से एक विशेष लकड़ी का लठ्ठा (द्रव्यमान) बहकर आएगा, जिसमें से उनके तीन रूपों – जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा – की मूर्तियाँ बनेंगी।
देव शिल्पी विश्वकर्मा का रहस्य
राजा ने जैसे ही समुद्र के किनारे लकड़ी का लठ्ठा पाया, वैसे ही एक वृद्ध व्यक्ति शिल्पकार बनकर आया और कहा कि वह मूर्तियाँ बना सकता है – पर एक शर्त के साथ। शर्त ये थी कि वह बंद कमरे में 21 दिन तक मूर्तियाँ गढ़ेगा और कोई भी उस दौरान दरवाजा नहीं खोलेगा।
राजा ने सहमति दे दी। लेकिन कई दिन बीत गए, और अंदर से कोई आवाज नहीं आई। रानी ने डर के कारण दरवाजा खोल दिया। जैसे ही दरवाजा खुला, वृद्ध शिल्पकार अंतर्ध्यान हो गया। वह वास्तव में देवताओं के शिल्पी – भगवान विश्वकर्मा थे। मूर्तियाँ अधूरी रह गई थीं – उनके हाथ-पैर पूरे नहीं बने थे।
लेकिन राजा को स्वप्न में भगवान ने दर्शन दिए और कहा कि यही उनके सच्चे रूप हैं। भगवान ने कहा कि भक्तों को यह समझना चाहिए कि ईश्वर की पूर्णता उसकी अपूर्णता में भी है। और तभी से अधूरी मूर्तियों को ही पूजित किया जाने लगा – जो आज भी पुरी के मंदिर में विद्यमान हैं।
जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा – भाई-बहन का अनूठा स्वरूप
पुरी के मंदिर में तीन मुख्य मूर्तियाँ हैं – भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा। यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जहाँ बहन और भाइयों की संयुक्त पूजा होती है। मूर्तियों की आंखें बड़ी और गोल हैं, शरीर गोल-मटोल और बिना हाथ-पैर के दिखाई देते हैं – जो भक्तों के लिए गूढ़ प्रतीक हैं कि भगवान हर रूप में हमारे साथ हैं।
इनकी मूर्तियाँ हर 12 से 19 वर्षों में बदली जाती हैं, इस प्रक्रिया को नवकलेवर कहते हैं। इसमें पुरानी मूर्तियों को भूमि में दफनाया जाता है और नई मूर्तियाँ बनाई जाती हैं – उसी रहस्यमय लकड़ी से।
रथ यात्रा – दुनिया की सबसे बड़ी धार्मिक यात्रा
पुरी में हर साल आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा निकाली जाती है, जिसमें तीनों भाई-बहन विशाल रथों में बैठकर अपनी मौसी के घर – गुंडिचा मंदिर जाते हैं। यह यात्रा लाखों भक्तों की उपस्थिति में पूरी होती है।
रथों को खींचना भक्तों के लिए सौभाग्य की बात मानी जाती है। यह दुनिया की सबसे बड़ी चतुर्भुज रथ यात्रा है, जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख – सभी धर्मों के लोग भाग लेते हैं। यह दर्शाता है कि जगन्नाथ केवल हिन्दू देवता नहीं बल्कि संपूर्ण मानवता के देवता हैं।
महाप्रसाद का चमत्कार
पुरी के जगन्नाथ मंदिर का महाप्रसाद भी अपने आप में चमत्कारिक माना जाता है। प्रतिदिन लाखों लोगों के लिए प्रसाद बनता है, लेकिन कभी भी न कम पड़ता है, न अधिक बचता है। भगवान को अर्पित किया गया यह भोजन भक्तों में समान रूप से बांटा जाता है। यहाँ जात-पात, ऊँच-नीच कोई नहीं – सब एक साथ बैठकर प्रसाद ग्रहण करते हैं।
मंदिर से जुड़े रहस्य
पुरी मंदिर के ऊपर लगा ध्वज हर समय हवा के विपरीत दिशा में लहराता है। मंदिर की ऊंचाई 214 फीट है, और इसकी छाया दोपहर में भी ज़मीन पर नहीं दिखती – यह बात आज तक वैज्ञानिक भी नहीं समझ पाए हैं।
मंदिर का मुख्य गुंबद रोज़ एक साधु द्वारा बिना किसी सहारे के चढ़कर ध्वज बदला जाता है – यह परंपरा सदियों से चल रही है। मान्यता है कि यदि कभी एक दिन भी ध्वज न बदला जाए, तो मंदिर 18 सालों तक बंद हो जाएगा।
समापन
जय जगन्नाथ सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि एक आस्था है – जो मानव को ईश्वर से जोड़ती है, भक्ति से जोड़ती है, और यह सिखाती है कि ईश्वर की लीला को मानव बुद्धि से नहीं समझा जा सकता। भगवान जगन्नाथ का स्वरूप हमें यह सिखाता है कि परमात्मा केवल सुंदरता में नहीं, अपूर्णता में भी विद्यमान हैं। पुरी का मंदिर, रथ यात्रा, महाप्रसाद और भक्तों का अपार प्रेम – सब मिलकर यह साबित करते हैं
कि जगन्नाथ सच में जगत के नाथ हैं।
जय जगन्नाथ!
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